Wednesday, September 5, 2012

बड़ी माँ 

टूटे  घर के चौखट पर
   कब से बैठी थी ,
     दीवारों पर वर्षों से
        जो रंग चढ़ा था,
          छप्पर से कई आसमान के            
            टुकड़े  होकर
              दीवारों का बोझ हमेशा
                बढ़ा  रहे थे
                  धूल सड़क से उठ उठ कर
                    हर शाम यहाँ के
                      दीवारों पर मैल की परतें
                        चढ़ा रहे थे।

कमरे की दीवार पर
   एक तस्वीर लगी थी
     देख देख कर जिसे हमेशा
      आस जगी थी
        कभी कभी तस्वीरें
          जिन्दा हो जातीं  हैं
            जिन्दा लोगों से भी
              बढ़कर हो जाती  हैं।  

पीछे देखा तो पाया
  ये सफ़र था लम्बा,
     सूने सड़क पे पेड़ नहीं थे
       धूप  भरी  थी ;
          चलते चलते थक जाते थे
             आस के पंछी ,
               फिर  भी उनके माथे की
                  बिंदिया गहरी थी।

बिंदिया सा वो चाँद
  न जाने कहाँ खो गया,
    सतरंगी आँचल का
    सारा रंग धो गया ;
       लुटी  हाथ से कुछ ऐसे
        रंगों की झोली ,
          कभी न आई जीवन में
             फिर वैसी होली।

टूट रहे हैं अरमानों के
  रोज हिंडोले,
    किसके घर जाकर
      वो दुख  की गठरी खोले;
        अपना था सो चला गया
          जीवन का साथी
           तेल बिना जलती  है
             जैसे दिए की बाती।

रात अँधेरे बढ़ा रहे हैं
   छुपकर  तारे ,
    बड़े बड़े थे चाँद
      जो घर के बाज़ी  हारे;
        आँखों ने भी जो अबतक था
          दिया सहारा
           धीरे धीरे धूमिल होता
             मंज़र सारा।

नींद न जाने कब से
  अपने चुरा ले गए,
    जो भी था बाकी
      घर में सब उड़ा  ले गए;
        कभी कभी जीवन में
          ऐसी रात आती है ,
            मौत न जाने रूठ
              कहीं पर सो जाती है।




                     
   
  
मेरा रिशु 

मुझे मालूम है तुम सोचते होगे  मेरे बारे ,
कहीं पर बैठकर जब याद करते होगे वो हर दिन,
सुबह से शाम तक जब तेरा मेरा संग होता  था ;
कहीं कुछ हो न हो 
पर अपना सा एक रंग होता था।
बहुत ही रंज होता था
चला जाता था जब बाहर ,
सरे बाज़ार की गलियों में 
हरदम ढूंढता  था मैं,
तुम्हारा खिलखिलाता और वो हँसता हुआ चेहरा। 
अभी भी सामने है मेरे वो  हँसता हुआ चेहरा।

मेरे आने तलक तुम खुद को यूँ ही खुशनुमा रखना।
क्षितिज के पार  जब भी देखना 
तो सोचना कि  मैं 
चला ही आऊंगा 
जैसे चला  आता था मैं हरदम। 

बजे घंटी तो झट से खोलना तुम घर  का दरवाजा, 
बड़े दिन बाद फिर देखूंगा 
वो हँसता हुआ चेहरा।

Monday, September 3, 2012

हवाओं का रुख कभी इस तरफ भी होगा 
तो बहेगी खुशबू  उन गलियों की 
जहाँ से चली उनके यादों की महफ़िल 
जो आँखों से ओझल हुआ चाहतीं हैं 

वो हर एक शाम याद आते हैं मुझको 
न जाने कहाँ तक जलेंगे यहाँ पर 
कोई और शायद कहीं बैठकर  के 
हमें याद भी यूँ ही करता तो होगा 

अकेले में खुद से जभी मिलता हूँ मैं 
तो यादों के गहरे समंदर के नीचे 
कोई झांकता है न जाने कहीं से 
अचानक भंवर में मुट्ठियों को भींचे .

कभी मुझको ऐसा गुमां होता है कि 
वो शायद मुझे अब भी पहचानता है 
कहीं न कहीं मैंने देखा है उसको 
वो सब जानता है वो सब जानता है।
 
दुःख न जाने कब से मेरे पास बैठा सो  रहा था
उसके आंसू चुनके  अपनी साँस में पिरो रहा था।

फिर कभी निकले तो जानूंगा उन्हें पहले से मैं
इन ख्यालों से मैं दुःख के साथ बिठा रो रहा था।

जल रहे इस धूप ने पाओं में छाले  भर दिए
फिर भी हंसकर आबलों को आग में भिगो रहा था।

देखना था कब तलक चलते हैं इन रस्तों  में हम
हम हटाते थे मुसलसल खार  कोई बो रहा था।

रात जब चंदा के नीचे कुछ सितारे हंस दिए
बैठे बैठे चांदनी में मैं अँधेरे धो रहा था।



वो  कौन है जो देखता है रहगुजर की तरह
सड़क पे साथ साथ चलते हमसफ़र की तरह।

कभी जो लाद्खादा के पांव ये बहकते हैं
तो थम लेता है बाँहों में जो दिलबर की तरह।

हर एक नदी से बहके आते  हुए कतरों को
जो सोख लेता है अपने में समंदर की तरह।

खिजां के खौफ से खामोश हो जब हर डाली
गुलों में रंग वो  लाता है मुसव्विर की तरह।





आदमी की भीड़ है पर खो गया है आदमी
आदमीयत ताक पर रख सो गया है आदमी।

कब से फसलें काटते थे अमन चैन -ओ प्यार का
जहर के कुछ बीज उनमे बो गया है आदमी।

आंसुओं को पोंछकर हमने बने सरहदें
लड़ते लड़ते सरहदों पर स गया है आदमी।

आसमां वाले बहुत खुश थे बनाया आदमी
फिर उसी शैतान सा क्यों हो गया है आदमी।

सोचता होगा वो ऊपर बैठकर हर दिन यही
क्या बनाया था मगर क्या हो गया है आदमी।

ये शहर है 
जहाँ घर ख़रीदे 
और बेच दिए जाते है .

दरवाजों पर नेमप्लेट की तख्तियां 
बदलती रहती हैं 

वहां सड़क के मोड़ पर ही 
ठिकानों के पते मिल जाते थे 
और नेम्पलेट दरवाजों पर नहीं 
दिल-ओ-दिमाग पर सिल जाते थे।

यहाँ दीवारों पर लगीं तस्वीरें 
उतार ले जाते हैं लोग 
वहां दीवारें ही तस्वीर होतीं थीं 
घरवालों की जिनके टूट जाने पर भी
तस्वीर बनी रहती थी .
  
वहां मरने वालों को 
कोई  खोजता  नहीं था गलियों में
यहाँ वर्षों बाद भी 
फोने पर रोंग  नंबर आते रहते हैं .